कभी उठता है दर्दे-दिल, कभी गश हम पे तारी है
कभी कुछ तो कभी कुछ है अजब हालत हमारी है
ग़ज़ब की ना-तवानी है बला की बेक़रारी है
तिरे बीमार पर आज ऐ मसीहा रात भारी है
कोई कुछ कोई कुछ सब अपनी अपनी कहते हैं लेकिन
हमारी मौत का बाइस तिरी ग़फ़लत-शआरी है
सुकूँ-अंजान हो जाता है बढ़ना बेक़रारी का
इलाजे-बेक़रारी इंतिहाए-बेक़रारी है
कोई आफ़त नहीं बढ़ कर परेशां-रोज़गारी से
हज़ार आफ़त की इक आफ़त परेशां-रोज़गारी है
कोई तो हद हो आख़िर ऐ ‘वफ़ा’ बे-इख़्तियारी की
न जीना इख़्तियारी है न मरना इख़्तियारी है।