चंचल पग दीप-शिखा-से धर
गृह,मग, वन में आया वसन्त!
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!
सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसन्त, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह!
पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल-रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!
अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा,
आया, पंखड़ियों को काले–
पीले धब्बों से सहज सजा!
कलि के पलकों में मिलन-स्वप्न,
अलि के अन्तर में प्रणय-गान
लेकर आया, प्रेमी वसन्त,–
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण!
काली कोकिल!–सुलगा उर में
स्वरमयी वेदना का अँगार,
आया वसन्त, घोषित दिगन्त
करती भव पावक की पुकार!
आः, प्रिये! निखिल ये रूप-रंग
रिल-मिल अन्तर में स्वर अनन्त
रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति
उसकी छाया, आया वसन्त!
रचनाकाल: अप्रैल’१९३५