कली पर मुस्कुराहट आज भी मालूम होती है
मगर बीमार होटों पर हँसी मालूम होती है
असीरी की ख़ुशी किस को ख़ुशी मालूम होती है
चराग़ाँ हो रहा है तीरगी मालूम होती है
ब-ज़ाहिर रू-ए-गुल पर ताज़गी मालूम होती है
मगर बर्बाद चेहरे की ख़ुशी मालूम होती है
नसीम-ए-सुब्ह तू क्या सोने वालों को जगाएगी
अभी तो सुब्ह ख़ुद सोई हुई मालूम होती है
चमन का लुत्फ़ खोता है चमन में अजनबी होना
ख़िज़ाँ भी अपने गुलशन की भली मालूम होती है
तुझे हम दोपहर की धूप देखेंगे ऐ गुंचे
अभी शबनम के रोने पर हँसी मालूम होती है
चलीं गर्म आँधियाँ सूरज भी चमका ख़ाक-ए-मक़तल पर
वही ख़ून शहीदाँ की नमी मालूम होती है
ज़रा ऐ मय-कशों अंजाम-ए-महफ़िल पर नज़र रखना
कि दूर आख़िरी में नींद सी मालूम होती है
मह ओ अंजुम के ख़ालिक़ कुछ नए तारे फ़रोज़ाँ कर
कि फिर आफ़ाक में बे-रौनक़ी मालूम होती है
समंदर भी है दरिया भी है चश्मे भी हैं नहरें भी
और इंसाँ है कि अब तक तिश्नगी मालूम होती है
ज़माने की तरक़्की तिश्ना-ए-तकमील है या रब
अभी इक मर्द-ए-मोमिन की कमी मालूम होती है
न जाओ देख लो शम्अ-ए-सहर का झिलमिलाना भी
ये महफ़िल की बहार-ए-आख़िरी मालूम होती है
तो फिर करना ही पड़ता है वहाँ इक़रार क़ुदरत का
जहाँ इंसान को अपनी कमी मालूम होती है
मिरी इक आह पर जो फूल दामन चाक करते थे
अब ने को मेरे नालों पर हँसी मालूम होती है
ब-ज़ाहिर चश्म-ए-साक़ी महव-ए-ख़्वाब-नाज़ है लेकिन
जवाब-ए-नर्गिस-ए-बे-दार भी मालूम होती है
हमेशा ख़ुश रहे उन की निगाहों की मसीहाई
अब अपनी ज़िंदगी भी ज़िंदगी मालूम होती है
मोहब्बत है ज़रूर उन से मगर मेरी मतानत को
न जाने क्यूँ ये निस्बत भी बुरी मालूम होती है
‘शफ़ीक़’ आसार हैं मशरिक़ की जानिब ताज़ा किरनों के
ये मेरी शाम-ए-नौ की चाँदनी मालूम होती है