देखो ! वह कोई जोगन जँगल में गा रही है,
मौसीक़-ए-हज़ीं के दरिया बहा रही है
हर लरज़िशे-सबा में तूफ़ाँ उमड़ रहे हैं,
किस दुख भरी अदा से तानें लगा रही है ।
अठखेलियों का सिन है, हंस-बोलने का दिन है,
लेकिन न जाने क्यों वह आसूँ बहा रही है ।
है एक सितार उसके आग़ोशे-नाज़नीं में
दो नाजुक उँगलियों से जिसको बजा रही है ।
जँगल के जानवर कुछ बैठे हैं उसके आगे
रो-रोके जिनको अपनी बिपता सुना रही है ।
खूँख़्वार शेर भी हैं वहशी ग़ज़ाल भी हैं,
लेकिन वह सबके दिल पर सिक्का जमा रही है ।
कुछ साँप झूमते हैं रह-रह के मस्त होकर
इक मौजे-वज्द उनकी रग-रग पै छा रही है।