निगाहों में वो हल कई मसायले-हयात[1] के
वो गेसूओं के ख़म कई मआमिलात के ।
हमारी उँगलियों में धड़कने हैं साज़े – दह्र की
हम अह्ले-राज़ पारखी हैं, नब्ज़े कायनात के।
है आबो-गिल में शोलाज़न बस एक साज़े-सरमदी
हिजाबे-दह्र परदे हैं, तरन्नुमे-हयात के।
ये क़शक़ा-ए-सुर्ख़-सुर्ख़, रूकशे-चिराग़े-तूर है
जबीने कुफ़्र से अयाँ रमूज़ इलाहियात के।
असातज़ा के बस जो थे, सब मुझे सिखा दिये
सुकूते-सरमदी ने वो निकात शेरयात के।
नज़र जो साफ़ आ रहे हैं ख़ानाहा-ए-बेख़तर
वही बिसाते – गंजफ़ा में हैं मुक़ाम मात के।
हज़ारहा इशारे पायेंगे, तलाश शर्त है
क़दींम फ़िक्रयात में, जदीद फ़िक्रयात के।
निजात के लिये न इन्तेज़ारे-मर्गो-हश्र कर
कि कै़दो-बन्दे जिन्दगी में राज़ हैं निजात के।
ये सफ़-बसफ़ मनाज़िरे-ज़माना देख गौर से
है आईना-दर-आईना सबक़ तहय्युरात के।
जमाहियाँ सी ले रहे हैं आसमान पर नुज़ूम[2]
सुना रही है ज़िन्दगी, फ़साने कटती रात के।
कहाँ से हाथ लाइये इन्हे उठाने के लिये
हिजाब – दर – हिजाब जल्वे हैं तअय्युनात के।
किताब में ये दर्सयात ढूँढना फ़ुज़ूल है
उन अँखड़ियों से सीख कुछ रमूज़ कुफ़्रियात के।
इन्ही में अपने ख़तो-खाल[3] देखती है ज़िन्दगी
ये आबो-ताबे-शेर हैं कि आइने हयात के।
तमाम उम्र इश्क़ का जवाज़ ढूँढते रहे
ये अह्ले-रस्म हो रहे इन्ही तकल्लुफ़ात के।
क़लम की चंद जुंबिशों से और मैंने क्या किया
यही कि खुल गये हैं कुछ रमूज़-से हयात के।
उफ़ुक़ से ता उफ़ुक़ ये क़ायनात महवे-ख़ाब थी
न पूछ दे गये हैं क्या मुझे वो लमहे रात के।
नमाज़ शाएरी है और इमामे-फ़न ’फ़िराक़’ है
मकूअ और सुजूद ज़ीरो-बम हैं सौतियात[6] के।