बे-ठिकाने है दिले-ग़मगीं ठिकाने की कहो
शामे-हिज्राँ , दोस्तो, कुछ उसके आने की कहो।
हाँ न पूछो इक गिरफ़्तारे-कफ़स की ज़िन्दगी
हमसफ़ीराने-चमन कुछ आशियाने की कहो
उड़ गया है मंजिले-दुशवार से ग़म का समन्द
गेसू-ए-पुर पेचो-ख़म के ताज़याने की कहो।
बात बनती और बातों से नज़र आती नहीं
उस निगाहे-नाज़ के बातें बनाने की कहो।
दास्ताँ वो थी जिसे दिल बुझते-बुझते कह गया
शम्ए – बज़्मे – ज़िन्दगी के झिलमिलाने की कहो।
कुछ दिले-मरहूम बातें करो, ऐ अहले-ग़म
जिससे वीराने थे आबाद, उस दिवाने की कहो।
दास्ताने – ज़िन्दगी भी किस तरह दिलचस्प है
जो अज़ल से छिड़ गया है उस फ़साने की कहो।
ये फ़ुसूने – नीमशब ये ख़्वाब-सामाँ ख़ामुशी
सामरी फ़न आँख के जादू जगाने की कहो।
कोई क्या खायेगा यूँ सच्ची क़सम, झूठी क़सम
उस निगाहे-नाज़ के सौगन्द खाने की कहो।
शाम से ही गोश-बर आवाज़ है बज़्मे-सुख़न
कुछ फ़िराक़ अपनी सुनाओ कुछ ज़माने की कहो।