कहा जो न, कहो !
नित्य – नूतन, प्राण, अपने
गान रच-रच दो !
विश्व सीमाहीन;
बाँधती जातीं मुझे कर कर
व्यथा से दीन !
कह रही हो–“दुःख की विधि–
यह तुम्हें ला दी नई निधि,
विहग के वे पंख बदले,–
किया जल का मीन;
मुक्त अम्बर गया, अब हो
जलधि-जीवन को !”
सकल साभिप्राय;
समझ पाया था नहीं मैं,
थी तभी यह हाय !
दिये थे जो स्नेह-चुम्बन,
आज प्याले गरल के घन;
कह रही हो हँस–“पियो, प्रिय,
पियो, प्रिय, निरुपाय !
मुक्ति हूँ मैं, मृत्यु में
आई हुई, न डरो !”