समझे मनोहारि वरण जो हो सके,
उपजे बिना वारि के तिन न ढूह से ।
सर नहीं सरोरुह, जीवन न देह में,
गेह में दधि, दुग्ध; जल नहीं मेह में,
रसना अरस, ठिठुर कर मृत्यु में परस,
हरि के हुए सरस तुम स्नेह से हँसे ।
विश्व यह गतिशील अन्यथा नाश को,
अथवा पुनर्व्यथा, फिर जन्म-पाश को,
फिर कलुष, काल-कवलित, निराश्वास को,
विपरीत गति धरा, हरि करों से धसे ।