सर दरे-यार पे रख कर न उठाया हम ने
बन्दगी में भी इक ऐजाज़ दिखाया हम ने
ज़िन्दगी मौत की आग़ोश में हंसती ही रही
जीने वालों को ये नैरंग दिखाया हम ने
शौक़े-दीदार भी है दीद के क़ाबिल अपना
ज़र्रे-ज़र्रे पे सरे-शौक़ झुकाया हम ने
बर्क़ का ख़ौफ़ न आँधी का रहा अब खटका
अपने हाथों से नशेमन को जलाया हम ने
बर्क़-सोजां ने वही फूंक के रख दी अफ़सोस
जब किसी शाख़ पे घर अपना बनाया हम ने
गुमराही मंज़िले-मक़सूद पे ले कर पहुंची
शुक्र है ख़िज़्र का एहसां न उठाया हम ने
उन की आंखों ने भी दी दाद हमारे ग़म की
लबे-ख़ामोश से जब हाल सुनाया हम ने
दर्दो-ग़म रंजो-अलम की है वो कसरत दिल में
छोटे से घर में ‘रतन’ शहर बसाया हम ने।