यूँ सइ-ए-हसूल-ए-मुद्दआ कर
आराम को ख़ुद पे ना-रवा कर
खाहां है जिस इंकिलाब का तू
उठ आप ही उस की इब्तिदा कर
दर्द-ए-दिले-ख़ल्क़ की दवा बन
पैदा दिले दर्द-आश्ना कर
जम्हूर के दिल का तरजमां हो
जम्हूर को अपना हमनवा कर
कहने की बात बरमला कह
करने का काम बरमला कर
हर हक़ जुरअत से मांग अपना
हर फ़र्ज़ खुलूस से अदा कर
दिल से उठती हुई सदा को
फौरन ममनून-ए-एतिना कर
कायर है अक़्ल-ए-मसलहत बीं
ज़िन्हार न उस को रहनुमा कर
उमीद-ए-वफ़ा, ‘वफ़ा’ बुतों से
ऐ मर्दे-ख़ुदा, ख़ुदा ख़ुदा कर।