मन के भीतर मौन बोलता
स्वर की चिर ऊर्म्मिल-लहरों पर
युग-युग का चैतन्य डोलता
मन के भीतर मौन बोलता
अग्नि-पिंड-सा मैं जल उठता
नक्षत्रों का जग बन उठता
निर्मल छाया में चुपके मैं
जीवन की लघु-ग्रंथि खोलता
मन के भीतर मौन बोलता
मैं न बना हूं मिट जाने को
मुरझाता हूं, मुस्काने से
लघु हूं, अपनी सांसों पर
मैं विराट् को आज तोलता
मन के भीतर मौन बोलता