लोग कहते हैं कि मैं हूँ ‘शायरे जादू बयाँ’,
’सदर-ए- मआनी’, ‘दावर-ओ-अल्फाज़’’ , अमीरे-शायरां ।
और ख़ुद मेरा भी कल तक , ख़ैर से था ये ख़्याल ।
शायरी के फ़न में हूँ ,मिनजुमला -ए-अहले -कमाल ।
लेकिन अब आई हैं जब इक गूना मुझमें पुख़्तगी ।
जेहन के आईने पे काँपा हैं अक्स-ए-आगही ।
आसमाँ जागा है सर में और सीने में जमीं ।
तब मुझे महसूस होता है कि मैं कुछ भी नहीं ।
जिहल की मंज़िल में था मुझको गुरूर-ए-आगही ।
इतनी ‘लामहदूद’ दुनिया और मेरी शायरी ।
‘जुल्फे-हस्ती’ और इतने बेनिहायत पेचो-ख़म ।
उड़ गया ‘रंगों तअल्ली’ खुल गया अपना भरम ।
मेरे शेरों में फ़क़त एक तायराना रंग है ।
कुछ सियासी रंग है कुछ आशिकाना रंग है ।
कुछ ‘मनाज़िर’ कुछ ‘मबाहिस’ कुछ ‘मसाइल’ कुछ ख़याल ।
एक उचटता सा जमाल एक ‘सर-ब-जानू’ सा ख़याल ।
मेरे ‘कस्त्रे-शेर’ में ‘गोगाए-फिक्रे-नातमाम’ ।
इक दर्द अंगेज दरमाँ इक शिकस्त आमादा ज़ाम ।
गाह सोजे चश्मे -अबरू ,गाह सोजे नाओ नोश ।
गाह खलवत की ख़ामोशी ,गाह जलवत का खरोश ।
चहचहे कुछ मौसमों के , जमजमे कुछ ज़ाम के ।
देरे-दिल में चंद मुखड़े ‘मरमरी असनाम’ के ।
चंद जुल्फ़ों की सियाही ,चंद रुखसारों की आब ।
गाह ‘हर्फ़े बेनवाई’ गाह शोरे इन्क़लाब ।
गाह मरने के अजायम गाह जीने की उमंग ।
यही ओछी-सी बातें बस यही सतही से रंग ।
बेख़बर था मैं कि दुनिया राज़ अन्दर राज़ है ।
वो भी गहरी ख़ामोशी है जिसका नाम आवाज़ है ।
यह सुहाना बोसतां सर्वो गुलो शमशाद का ।
इक पल भर का खिलंदरापन है आबो-बाद का ।
‘इब्तिदा’ और ‘इंतिहा’ का इल्म नज़रों से निहाँ ।
टिमटिमाता सा दिया दो जुल्मतों के दर्मियाँ ।
‘अंजुमन’ में ‘तखलिए’ हैं ‘तखलियों’ में ‘अंजुमन’ ।
हर ‘शिकन’ में इक ‘खिंचावट’ , हर ‘खिंचावट ‘ में ‘शिकन’ ।
हर ‘गुमाँ’ में इक ‘यकीं’ सा हर ‘यकीं ‘ में सौ ‘गुमाँ ‘ ।
नाखुने-तदबीर में भी इक गुत्थी बे-अमां ।
एक-एक ‘गोशे’ से पैदा ‘बुसअते-कोनो-मकाँ’
एक -एक ‘खोशे’ में पिन्हाँ ‘सद-बहारे-जाविदाँ’
‘बर्क़’ की लहरों की बुसअत अल-हफीजो-अल-अमां’ ।
और मैं सिर्फ़ एक कोंदे की लपक का ‘राजदाँ’ .
‘राजदाँ’ ‘क्या मदहख्वां’ और ‘मदहख्वां’ भी ‘कमसवाद’ ।
‘नाबलद-नादान-नावाकिफ-नादीदः -नामुराद’ ।
क्यों न फिर समझूँ ‘सुबक’ अपने सुखन के रंग को ।
नुत्क ने अलमास के बदले तराशा संग को ।
” लैला-ए-आफाक” पलटती ही रही पैहम निक़ाब ।
और यहाँ ‘औरत’ ‘मनाज़िर’ ‘इश्क’ ‘ सहबा’ ‘इन्कलाब’ ।
पा रहा हूँ शायद अब इस ‘तीरह’ हल्क़े से निज़ात ।
क्योंकि अब ‘पेश-ए-नज़र’ हैं ‘उक्दा हाये-कायनात’।
ये भिंची उलझी जमीं ये ‘पेच-दर-पेच’ आसमाँ ।
‘अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमानो-अल-अमां’ ।
इक ‘नफ़स’ का तार और ये ‘शोरे -उम्रे- जाविदाँ ।
इक कड़ी और उसमें जंजीरों के इतने कारवाँ ।
एक-एक लम्हे में इतने ‘कारवाने -इन्कलाब’
एक-एक जर्रे में इतने ‘माहताब-ओ-आफ़ताब’ ।
इक ‘सदा’और उसमें ये लाखों हवाई दायरे।
जिसके ‘शोबों’ को ‘अगर चुनले तो दुनिया गूंज उठे ।
एक ‘बूँद’ और ‘हफ्त -कुलज़म’ के हिला देने का जोश ।
एक गूंगा ख्वाब और ताबीर का इतना खरोश ।
इक ‘कली’ और उसमें सदियों की ‘मताअ-ए- रंगों-बू’ ।
सिर्फ एक ‘लम्हे’ की राग में और ‘करनों’ का लहू।
हर कदम पर ‘नस्ब’ और ‘असरार’ के इतने खयाम ।
और इस मंजिल में मेरी शायरी मेरा कलाम ।
जिसमें ‘राजे-आस्मां ‘ है और ना ‘असरारे-जमीं ।.
एक ‘खस’ एक ‘दाना’ एक ‘जौ’ एक ‘ज़र्रा’ भी नहीं ।
‘नौ-ए-इंसानी’ को जब मिल जाएगी ‘रफ़्तार-ए-नूर’
‘शायरे-आज़म’ का तब होगा कहीं जाकर ‘ज़हूर’
‘खाक’ से फूटेगी जब ‘उम्रो-अबद’ की रौशनी ।
झाड़ देगी मौत को दामन से जिस दिन जिंदगी ।
जब हमारी जूतियों की ‘गर्द’ होगी ‘कहकशां’ ।
तब जनेगी ‘नस्ले-आदम’ ‘शायरे-जादू-बयाँ’ ।
‘बज़्म’ में ‘कामिल’ ना ‘फन्ने-शेर ‘ में ‘यकता’ हूँ में ।
और अगर कुछ हूँ तो ‘ नकीब-ए-शायरे-फ़रदां’ हूँ मैं ।