वो ख़ुश हो के मुझ से ख़फा हो गया
मुझे क्या उम्मीदें थी क्या हो गया
नवेद-ए-शफ़ा चारा-साज़ों को दो
मरज़ अब मेरा ला-दवा हो गया
किसी ग़ैर से क्या तवक़्क़ो के जब
मेरा दिल ही दुश्मन मेरा हो गया
कहाँ से कहाँ लाई क़िस्मत मेरी
किस आफ़त में मैं मुब्तला हो गया
मैं यकजा ही करता था अपने हवास
के उन से मेरा सामना हो गया
‘रवाँ’ तू कहाँ और कहाँ दर्द-ए-इश्क़
तुझे क्या ये मर्द-ए-ख़ुदा हो गया